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वि पाज॑सा पृ॒थुना॒ शोशु॑चानो॒ बाध॑स्व द्वि॒षो र॒क्षसो॒ऽअमी॑वाः। सु॒शर्म॑णो बृह॒तः शर्म॑णि स्याम॒ग्नेर॒हꣳ सु॒हव॑स्य॒ प्रणी॑तौ ॥४९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। पाज॑सा। पृ॒थुना॑। शोशु॑चानः। बाध॑स्व। द्वि॒षः। र॒क्षसः॑। अमी॑वाः। सु॒शर्म्म॑ण॒ इति॑ सु॒ऽशर्म॑णः। बृ॒ह॒तः। शर्म॑णि। स्या॒म्। अ॒ग्नेः। अ॒हम्। सु॒हव॒स्येति॑ सु॒ऽहव॑स्य। प्रणी॑तौ। प्रनी॑ता॒विति॒ प्रऽनी॑तौ ॥४९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:49


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विवाह के समय स्त्री और पुरुष क्या-क्या प्रतिज्ञा करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पते ! जो आप (पृथुना) विस्तृत (वि) विविध प्रकार के (पाजसा) बल के साथ (शोशुचानः) शीघ्र शुद्धता से सदा वर्त्तें और (अमीवाः) रोगों के समान प्राणियों की पीड़ा देने हारी (रक्षसः) दुष्ट (द्विषः) शत्रुरूप व्यभिचारिणी स्त्रियों को (बाधस्व) ताड़ना देवें तो मैं (बृहतः) बड़े (सुशर्मणः) अच्छे शोभायमान (सुहवस्य) सुन्दर लेना-देना व्यवहार जिसमें हो, ऐसे (अग्नेः) अग्नि के तुल्य प्रकाशमान आपके (शर्मणि) सुखकारक घर में और (प्रणीतौ) उत्तम धर्मयुक्त नीति में आपकी स्त्री (स्याम्) होऊँ ॥४९ ॥
भावार्थभाषाः - विवाह समय में स्त्री-पुरुष को चाहिये कि व्यभिचार छोड़ने की प्रतिज्ञा कर व्यभिचारिणी स्त्री और लम्पट पुरुषों का सङ्ग सर्वथा छोड़ आपस में भी अति विषयासक्ति को छोड़ और ऋतुगामी होके परस्पर प्रीति के साथ पराक्रमवाले सन्तानों को उत्पन्न करें, क्योंकि स्त्री वा पुरुष के लिये अप्रिय, आयु का नाशक, निन्दा के योग्य कर्म व्यभिचार के समान दूसरा कोई भी नहीं है, इसलिये इस व्यभिचार कर्म को सब प्रकार छोड़ और धर्माचरण करनेवाले हो के पूर्ण अवस्था के सुख को भोगें ॥४९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विवाहसमये स्त्रीपुरुषौ किं किं प्रतिजानीयातामित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(वि) विविधेन (पाजसा) बलेन। पातेर्बले जुट् च ॥ (उणा०४.२०३) इत्यसुन्। पाज इति बलनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.९) (पृथुना) विस्तीर्णेन (शोशुचानः) भृशं शुचिः सन् (बाधस्व) (द्विषः) शत्रुभूता व्यभिचारिणीर्वृषलीः (रक्षसः) दुष्टाः (अमीवाः) रोग इव प्राणिनां पीडकाः (सुशर्मणः) सुशोभितगृहस्य (बृहतः) महतः (शर्मणि) सुखकारके गृहे (स्याम्) वर्त्तेय (अग्नेः) अग्निवद्देदीप्यमानस्य (अहम्) पत्नी (सुहवस्य) शोभनो हवो ग्रहणं दानं वा यस्य (प्रणीतौ) प्रकृष्टायां धर्म्यायां नीतौ। [अयं मन्त्रः शत०६.४.४.२१ व्याख्यातः] ॥४९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पते ! यदि त्वं पृथुना विपाजसा बलेन सह शोशुचानः सदा वर्त्तेथाः, अमीवा रक्षसो द्विषो बाधस्व, तर्हि बृहतः सुशर्मणः सुहवस्याग्नेस्ते शर्मणि प्रणीतौ चाहं पत्नी स्याम् ॥४९ ॥
भावार्थभाषाः - विवाहसमये पुरुषेण स्त्रिया च व्यभिचारत्यागस्य प्रतिज्ञां कृत्वा व्यभिचारिणीनां स्त्रीणां लम्पटानां पुरुषाणां च सर्वथा सङ्गं त्यक्त्वा परस्परमप्यतिविषयासक्तिं विहाय ऋतुगामिनौ भूत्वान्योऽन्यं प्रीत्या वीर्यवन्त्यपत्यान्युत्पादयेताम्। नहि व्यभिचारेण तुल्यं स्त्रियाः पुरुषस्य चाप्रियमनायुष्यमकीर्तिकरं कर्म विद्यते, तस्मादेतत् सर्वथा त्यक्त्वा धर्माचारिणौ भूत्वा दीर्घायुषौ स्याताम् ॥४९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - स्त्री - पुरुषांनी विवाहाच्या वेळी व्यभिचार न करण्याची प्रतिज्ञा करावी. व्यभिचारिणी स्त्री व लंपट पुरुषांचा संग सर्वथा सोडून द्यावा. अतिविषयासक्ती सोडावी व ऋतुगामी बनून परस्पर प्रेमाने राहावे आणि पराक्रमी संतानांना निर्माण करावे. कारण व्यभिचाराशिवाय स्री-पुरुषांना अप्रिय वाटणारे, आयुष्याचा नाश करणारे, दुसरे निंदनीय कर्म नाही. त्यासाठी व्यभिचार कर्म सोडून धर्माचरणाने पूर्ण आयुष्याचे सुख भोगावे.